
प्रेस विज्ञप्ति
लखनऊ, उत्तरप्रदेश
“चुनाव आयोग की निष्पक्षता बनाम लोकतंत्र की पारदर्शिता: जनगणना, मतदाता सूची और सत्ता का समीकरण”
भारत, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, आज एक बुनियादी सवाल से जूझ रहा है:
क्या हमारी चुनावी प्रणाली उतनी ही पारदर्शी और निष्पक्ष है जितनी संविधान में कल्पित थी?
हाल ही की घटनाएं — चुनाव आयोग की संदिग्ध चुप्पी, मतदाता सूची में अनियमितताओं के आरोप, और जातिगत जनगणना की नई पृष्ठभूमि — यह संकेत देती हैं कि लोकतंत्र के मंदिर में कोई हलचल तो है, और शायद उसकी नींव की ईंटें हिल रही हैं।
संवैधानिक दृष्टिकोण: चुनाव आयोग की भूमिका और ज़िम्मेदारी
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को स्वतंत्र, निष्पक्ष और निष्कलंक चुनाव कराने की जिम्मेदारी देता है।
किन्तु जब कोई संवैधानिक संस्था:
- सीधे प्रश्नों से बचती है,
- अस्पष्ट स्पष्टीकरण देती है,
- और पारदर्शिता के सवालों को “गोपनीयता” की आड़ में टालती है,
तो यह महज़ कार्यप्रणाली की बात नहीं रह जाती — यह संवैधानिक नैतिकता पर चोट बन जाती है।चुनाव आयोग ने जब यह कहा कि मतदाता सूची की जानकारी साझा करना प्राइवेसी का उल्लंघन है, तब यह तर्क तर्कसंगत नहीं लगता:
मतदाता सूची स्वयं एक सार्वजनिक दस्तावेज है।
अगर किसने वोट डाला (ना कि किसे वोट दिया) यह जानकारी मिलती है, तो इससे कोई व्यक्तिगत गोपनीयता नहीं टूटती।
संविधान यह अपेक्षा नहीं करता कि संस्थाएं सत्ता की सुविधा के अनुसार काम करें, बल्कि जनता के विश्वास के अनुसार चलें।
राजनीतिक पृष्ठभूमि: ध्रुवीकरण और जनगणना की राजनीति
इसी बीच जातिगत जनगणना एक और बड़ा सामाजिक-राजनीतिक विमर्श बनकर उभर रहा है।
भाजपा जहां इसे विभाजनकारी बता रही है,
वहीं विपक्षी दल इसे सामाजिक न्याय के मूल आधार के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
अब सोचने की बात है — क्या जातिगत जनगणना और चुनावी मतदाता सूची के विश्लेषण को जोड़ा जा सकता है?
हां। क्योंकि दोनों ही सत्ता वितरण और प्रतिनिधित्व से जुड़े हुए हैं।
- एक ओर जनगणना से यह सामने आएगा कि किस समुदाय की संख्या कितनी है?
वहीं मतदाता सूची की पारदर्शिता से यह उजागर हो सकता है कि क्या किसी विशेष वर्ग को वोटिंग सूची में ‘अनुपात से अधिक’ या ‘डुप्लिकेट’ तरीके से दर्ज किया गया है?
सामाजिक प्रभाव: भरोसे का संकट
जब लोकतंत्र की सबसे पवित्र प्रक्रिया — मतदान — ही शक के घेरे में आ जाए, जब वोटर यह सोचने लगे कि “मेरे एक वोट का क्या मतलब है, अगर सिस्टम ही संदिग्ध है?”, तो यह केवल राजनीतिक विफलता नहीं होती, यह एक सामाजिक विषाद (collective disillusionment) है।
लोकतंत्र केवल संविधान की किताब में नहीं होता, वह जनता के मन में बसता है; और जब वहां से भरोसा उठे, तो संविधान की पंक्तियाँ भी अर्थहीन हो जाती हैं।
तथ्यपरक पड़ताल: हरियाणा और बंगाल की वोटर लिस्ट में विसंगतियाँ
सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी दलों द्वारा प्रस्तुत आंकड़े चौंकाने वाले हैं:
एक ही इलेक्ट्रोलर नंबर पर दर्ज एक जैसे नाम, अलग-अलग पते, और वो भी भिन्न राज्यों में — यह किसी प्रिंटिंग एरर से कहीं बड़ा मामला है।
यह आरोप है कि लगभग 40 लाख ‘डुप्लिकेट वोटर’ का नेटवर्क पूरे देश में है, जो सुनियोजित तरीके से चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकता है।
यदि यह साबित होता है, तो यह चुनावी भ्रष्टाचार का राष्ट्रीय नेटवर्क होगा, न कि केवल प्रशासनिक चूक।
न्यायपालिका की भूमिका: लोकतंत्र की अंतिम आशा
दिल्ली हाईकोर्ट का हालिया आदेश — जिसमें चुनाव आयोग को हरियाणा और महाराष्ट्र की चार बार की विधानसभा चुनावों की वोटर लिस्ट याचिकाकर्ता को देने का निर्देश दिया गया है — संविधान की आत्मा में पुनः आस्था का संचार करता है।
यह उदाहरण है कि जब संवैधानिक संस्थाएं मौन हों,
तब न्यायपालिका वह “ध्वनि” बन सकती है जो सत्य की ओर देश को मोड़ती है।लोकतंत्र की सुरक्षा अब नागरिक जागरूकता पर निर्भर:
अब समय आ गया है कि:
- केवल नेताओं से नहीं, संस्थाओं से भी सवाल पूछे जाएं।
- हर मतदाता जान सके कि उसके वोट की पवित्रता सुरक्षित है या नहीं।
- जातिगत जनगणना हो या वोटर लिस्ट — दोनों में पारदर्शिता और तथ्यपरकता सुनिश्चित की जाए।
“भारत का लोकतंत्र केवल चुनाव जिताने की प्रक्रिया नहीं है, यह जनता के विश्वास को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया है।”
अगर लोकतंत्र को बचाना है, तो सिर्फ वोट डालना पर्याप्त नहीं — प्रश्न पूछना, डेटा समझना और संस्थाओं से जवाब लेना भी एक नागरिक धर्म है।
Vande Bharat live tv news,Nagpur
Editor
Indian council of Press,Nagpur
Journalist
Contact no.9422428110/9146095536
HEAD OFFICE Plot no.18/19,Flat
no.201,Harmony emporise Payal –
pallavi society new Manish Nagar-
Somalwada-440015